यह दोहा संत कबीरदास जी का है और इसका अर्थ बहुत ही गहरा और प्रेरणादायक है:
दोहा:
"यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान।
शीश दियो जो गुरु मिले, तो भी सस्ता जान।।"
शब्दार्थ और व्याख्या:
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यह तन विष की बेलरी:
यह शरीर विष (जहर) की बेल है, यानी यह संसारिक शरीर वासनाओं, मोह-माया और अहंकार से भरा हुआ है। -
गुरु अमृत की खान:
गुरु अमृत का खजाना हैं। उनका ज्ञान, उपदेश और सान्निध्य आत्मा के लिए अमृत समान है। वे जीवन को शुद्ध करने वाले हैं। -
शीश दियो जो गुरु मिले:
अगर किसी को गुरु को पाने के लिए अपना सिर (अहम, अहंकार, या वास्तविक सिर भी) देना पड़े, यानी बहुत बड़ा त्याग करना पड़े, -
तो भी सस्ता जान:
तब भी वह सौदा सस्ता है। क्योंकि सच्चे गुरु को पाकर जीवन का असली अर्थ मिल जाता है, जो किसी भी कीमत से बड़ा है।
भावार्थ (सरल अर्थ में):
यह शरीर तो विकारों और मोह का घर है, लेकिन गुरु उस अमृत जैसे ज्ञान का स्रोत हैं जो आत्मा को मुक्त कर सकता है। अगर गुरु को पाने के लिए अपने प्राण भी देने पड़े, तो भी वह बहुत सस्ता सौदा है, क्योंकि गुरु के बिना जीवन अधूरा है।
सीख:
सच्चे गुरु का महत्व इतना है कि उनके लिए कुछ भी त्याग किया जाए, वह कम ही होगा। गुरु ही जीवन के अंधकार को मिटाकर आत्मज्ञान की रोशनी देते हैं।
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